उत्तर प्रदेश में बीजेपी के खिलाफ बनने वाली विपक्षी एकता की कमान सपा प्रमुख अखिलेश यादव के हाथों में है, लेकिन बसपा सुप्रीमो मायावती ने अभी तक 2024 को लेकर अपने पत्ते नहीं खोले हैं. वहीं, सूबे की सियासत में सियासी वनवास झेल रही कांग्रेस को एक मजबूत सहारे की तलाश है ताकि वो दोबारा से खड़ी हो सके. ऐसे में विपक्षी गठबंधन में सपा के साथ कांग्रेस भी शामिल है, लेकिन यूपी के कांग्रेसी नेता अखिलेश यादव से ज्यादा मायावती के साथ गठबंधन के लिए इच्छुक हैं. सवाल उठता है कि आखिर क्या वजह है कि कांग्रेसी नेता बसपा के साथ अपना सियासी फायदा देख रहे हैं?2024 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस यूपी की करीब दो दर्जन लोकसभा सीटों पर खास फोकस कर रखा है, लेकिन प्रदेश अध्यक्ष बृजलाल खाबरी सभी 80 लोकसभा सीटों पर चुनाव लड़ने के लिहाज से तैयारी में जुटे हैं. पटना में विपक्षी नेताओं की बैठक में कांग्रेस के राहुल गांधी, मल्लिकार्जुन खरगे के साथ अखिलेश यादव ने भी शिरकत की थी, जिसके बाद भी यूपी में कांग्रेस के सपा के साथ मिलकर चुनाव लड़ने की चर्चा तेज हो गई थी. हालांकि, दोनों ही पार्टियों की तरफ से अभी तक गठबंधन की बात नहीं कही गई है.यूपी में लोकसभा चुनाव लड़ने की तैयारी कर रहे एक बड़े कांग्रेस नेता ने नाम न छापने की शर्त पर tv9hindi.com को बताया कि पार्टी को अगर दोबारा से मजबूत होना है तो सपा के बजाय बसपा के साथ मिलकर चुनाव लड़ने की दिशा में कोशिश करनी चाहिए. 2017 में सपा के साथ गठबंधन कर हम देख चुके हैं, लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ है. मायावती ने अभी तक किसी के साथ गठबंधन नहीं किया है, जिसके चलते उनके साथ मिलकर चुनाव लड़ने का विकल्प खुला हुआ है. इसी तरह से पश्चिमी यूपी के मुस्लिम कांग्रेसी नेता ने भी कहा कि अखिलेश यादव के बजाय मायावती के साथ मिलकर चुनाव लड़ने का फायदा मिल सकता है.सूत्रों की माने तो कांग्रेस में दो लॉबी हैं, जिनमें एक गुट सपा के साथ गठबंधन करने के लिए तर्क दे रहा है तो दूसरा खेमा बसपा के साथ मिलकर चुनाव लड़ने के पक्ष में है।
यूपी में बसपा के साथ 1996 में कांग्रेस ने गठबंधन कर चुनाव लड़ी थी, जिसके आंकड़े को भी रखा जा रहा है. इतना ही नहीं कांग्रेस के पुराने कोर वोटबैंक रहे दलित और मुस्लिम कांबिनेशन की भी दुहाई दी जा रही है. बसपा के साथ गठबंधन की पैरवी करने वाले कांग्रेसी नेता का कहना है कि पार्टी को अगर दोबारा से खड़े होना है तो शीर्ष नेतृत्व के अपने नफा-नुकसान को देखकर हाथ मिलाना चाहिए, नहीं तो 2017 की तरह ही हश्र होगा?यूपी के वरिष्ठ पत्रकार सिद्धार्थ कलहंस कहते हैं कि कांग्रेसी नेता सपा के बजाय बसपा से मिलकर चुनाव लड़ने की बातें ऐसे ही नहीं कर रहे हैं बल्कि उसके पीछे कई मजबूत कारण हैं. पहली वजह यह है कि सपा की तुलना में बसपा का वोट बहुत आसानी से ट्रांसफर हो जाता. सपा का आधार वोट यादव है, जो सजातीय कैंडिडेट होने पर तो ट्रांसफर हो जाता, लेकिन जब दूसरे समुदाय का प्रत्याशी होता है तो फिर बीजेपी के साथ चला जाता है. वहीं, बसपा का कोर वोटबैंक जाटव समुदाय का वोट मायावती के दिशा-निर्देश पर स्वाभाविक तौर पर बहुत आसानी से ट्रांसफर हो जाता है. इसी के चलते कांग्रेसी नेताओं की चाहत है कि सपा के बजाय बसपा के साथ गठबंधन हो.सिद्धार्थ कलहंस कहते हैं कि कांग्रेस का कोर वोटबैंक एक समय दलित-मुस्लिम रहा है, जिसके चलते भी कांग्रेसी बसपा के साथ चुनाव लड़ना चाहते हैं ताकि दलित वोट उन्हें मिल सके. यूपी में मुस्लिम और दलित कई सीटों पर निर्णायक भूमिका में हैं, जो सियासी समीकरण के लिहाज से कांग्रेसियों को मुफीद लग रहा है. बसपा के साथ गठबंधन करने का फायदा सिर्फ यूपी ही नहीं बल्कि देश के दूसरे राज्यों में भी कांग्रेस को मिल सकता है जबकि सपा के साथ गठबंधन यूपी तक ही सीमित रह सकता है.उत्तर प्रदेश में सपा कई सियासी प्रयोग करके देख चुकी है, लेकिन बीजेपी को सत्ता में आने से नहीं रोक सकी है. 2017, 2019 और 2022 के चुनाव में अखिलेश ने अलग-अलग गठबंधन के प्रयोग किए हैं, लेकिन बीजेपी को मात नहीं दे सके. इसके चलते यूपी में अल्पसंख्यक समुदाय बेचैन और चिंतित नजर आ रहा है, जिसके चलते कांग्रेसी नेताओं को लगता है कि सपा के बजाय बसपा से गठबंधन कर पार्टी को चुनावी मैदान में उतरना चाहिए. बसपा का अपना सियासी आधार है, जिसका साथ मिलने पर राजनीतिक लाभ मिल सकता है.बसपा के साथ गठबंधन करने पर कांग्रेस को अपना सियासी भविष्य यूपी में संवारने का मौका दिख रहा है. कांग्रेसी नेताओं को लगता है कि सपा का सियासी आधार उसी के वोट बैंक पर टिका हुआ है. कांग्रेस अल्पसंख्यक मोर्चा के यूपी अध्यक्ष शाहनवाज आलम ने बताया कि पार्टी को दोबारा से खड़े होने के लिए अपने परंपरागत वोटर्स को दोबारा से अपने साथ लाना होगा, उसके लिए सपा का कमजोर होना जरूरी है. यूपी में सपा कमजोर होगी तो कांग्रेस मजबूत होगी. कांग्रेस मजबूत तभी होगी, जब मुस्लिम वोट बैंक वापस लौटेगा. कर्नाटक में मुस्लिम और दलित समुदाय कांग्रेस की तरफ लौटा है, उसी तर्ज पर यूपी में काम करने की जरूरत है. एक बार मुस्लिम वोट वापस कांग्रेस के साथ आने पर यूपी में उसे सत्ता में आने से फिर कोई नहीं रोक सकता है।