बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की अगुवाई में उनके आवास पर विपक्ष के 15 दलों की मौजूदगी में शुक्रवार को एनडीए को 2024 लोकसभा चुनाव में हराने के लिए बड़ी रणनीति बनी. अब अगली बैठक 12 जुलाई को शिमला में होगी, जिसमें आगे की रणनीति पर चर्चा होगी. लेकिन, अगर राष्ट्रपति चुनाव तक पर गौर करें तो इस देश में विपक्षी एकता इस देश में कहीं पर नजर नहीं आ रही थी. चाहे 2014 का चुनाव हो या फिर 2019 का चुनाव हो, उन चुनावों में हम ये जरूर देखते थे कि विपक्षी नेता मंचों पर एकजुट होते थे।
लेकिन विपक्षी एकता का विमर्श आगे नहीं बढ़ पाता था.कई बार हमने ये भी देखा कि कांग्रेस के बिना ही विपक्षी एकजुटता के प्रयास किए गए. लेकिन पटना में शुक्रवार जो बैठक हुई, उसमें विपक्षी एकता का गंभीर प्रयास दिखा. उसमें जम्मू कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक तमाम बड़े पार्टियों के नेता उपस्थित थे. विपक्षी पार्टियों के अगर दूसरे दलों से या फिर कांग्रेस के साथ अगर संघर्ष है तो फिर वहां पर अंतर्विरोध बहुत ज्यादा है. लेकिन, उन अंतर्विरोध के बावजूद सबके एक प्लेटफॉर्म पर लाना और एक मुद्दे को स्थापित करना, ये आसान काम नहीं था.मैं मानता हूं कि नीतीश कुमार पिछले कई सालों से इस काम में जोर-शोर से लगे रहे हैं।
उनकी मेहनत का ये प्रतिफल है. दूसरा ये कि विपक्षी एकजुटता के लिए ये भी काफी आवश्यक था कि कांग्रेस मजबूत हो. जिस तरह से हिमाचल के बाद कांग्रेस ने कर्नाटक में प्रदर्शन किया है, ऐसे में कर्नाटक के जीतने के बाद बंगाल सीएम ममता बनर्जी के सुर बदल गए हैं. कर्नाटक चुनाव से पहले ममता बनर्जी के सुर कुछ अलग दिख रहे थे.लोकसभा चुनाव में करीब दो सौ से लेकर ढाई सौ तक ऐसी सीटें हैं जहां पर बीजेपी और कांग्रेस की सीधी टक्कर होती है. उस सीधी टक्कर में अगर कांग्रेस मजबूत नहीं होती है, तो विपक्षी एकता का कोई मतलब नहीं रह जाता है. ऐसे में अभी कांग्रेस की मजबूत स्थिति और कांग्रेस के साथ विपक्षी दलों का मजबूत गठबंधन का प्रयास एक गंभीर प्रयास है.आगे चलकर ये एक गंभीर सवाल बनेगा कि आगे चलकर ये विपक्षी दलों का गबंधन किस तरह का स्वरुप लेगा. सीट शेयरिंग किस तरह की होगी?
आगे इस दिशा में इन्हें काफी कुछ तय करना है. अगर प्रधानमंत्री मोदी के ही बयान को देखें जो उन्होंने सदन में दिया था तो उन्होंने कहा था कि ईडी और सीबीआई रेड के चलते विपक्ष एकजुट हो रहा है. हम देख रहे हैं कि केन्द्रीय एजेंसियों का काफी ज्यादा प्रयोग हो रहा है. उन प्रयोगों ने भी इनको एक साथ होने के लिए मजबूर किया है. अभी तक हमने देखा था कि जेडीयू के नेता पर छापेमारी नहीं हो रही थी, लेकिन अब उनके ऊपर पर केन्द्रीय एजेंसियों की छापेमारी की जा रही है.ऐसे में ये माना जा सकता है कि विपक्षी एकजुटता के लिए केन्द्रीय एजेंसियों का बहुत ज्यादा प्रयोग होना भी है. दूसरा जब बीजेपी चीफ जेपी नड्डा पटना यात्रा पर गए थे तो उन्होंने बयान दिया था कि क्षेत्रीय दलों से मुक्त करना है. जब तक बीजेपी ये नारा लगा रही थी कि हमें देश को कांग्रेस से मुक्त करना है तब तक क्षेत्रीय दलों को लग रहा था कि अगर कांग्रेस सिमटेगी तो उनका दायरा बढ़ेगा. लेकिन अब जबकि बीजेपी ने क्षेत्रीय दलों से मुक्त करने का नारा लगाना शुरू तो उन दलों को समझ में आ गया कि ये अब अस्तित्व बचाने का समय आ गया है।
उसी के बाद हमने ये देखा कि नीतीश कुमार पाला बदलकर नीतीश कुमार के खेमे में बदलकर चले गए.चूंकि, हम देखें तो आज बीजेपी के साथ उसके पुराने सहयोगी ही आज नहीं है, न नीतीश कुमार न अकाली दल उनके साथ हैं. उद्धव उनके साथ नहीं हैं. शिवसेना को बिल्कुल उन्होंने तोड़ दिया है. इन सब प्रकरण ने क्षेत्रीय दलों को आज सोचने पर मजबूर किया है. लेकिन ये जरूर है कि अगर बंगाल में चुनाव होगा तो ममता और कांग्रेस में किस तरह से सीट शेयरिंग होगी, इसका क्या स्वरुप होगा?विपक्षी दलों के लिए ब्रांड मोदी के खिलाफ चेहरा एक बड़ा मुद्दा है कि फेस के बदले फेस कौन होगा।
बीजेपी भी यही सवाल उठा रही है. लेकिन 2004 चुनाव हमें नहीं भूलना चाहिए जब एक तरफ अटल जी का बड़ा चेहरा था, लेकिन दूसरी तरफ विपक्ष का कोई बड़ा चेहरा नहीं था. लेकिन जनता ने चेहरा को भुलाकर मुद्दे पर वोट किया था. ऐसे में हो सकता है कि विपक्ष चेहरा लाए या फिर चेहरा न लाकर मुद्दे पर ही जाए. सवाल ये भी है कि विपक्ष अंतर्विरोध को खत्म कर साथ आ भी पाएगा या नहीं आ पाएगा? हमलोग एक संसदीय लोकतंत्र में हैं, जहां पर कई तरह के विकल्प खुले हुए हैं. नीतीश कुमार हरकिशन सिंह सुरजीत का भूमिका में आ पाएंगे? हमलोगों ने देखा कि जब देवगौड़ा की सरकार बन रही थी, जब इंद्रकुमार गुजराल की सरकार बन रही थी उस समय की तरफ क्या उस भूमिका में नीतीश कुमार आ पाएंगे?
ये सब सवाल इस वक्त हमारे मन में खड़ा है.बीजेपी के चुनाव लड़ने के तरीके, पीएम मोदी की अपनी स्थिति, वैसे हालात में अगर विपक्ष अपने अपने महत्वाकांक्षा के साथ आएंगे तो फेल हो जाएंगे. लेकिन, जिस तरह के बड़े नेता एक मंच पर आए हैं, उससे लगता है कि वे गठबंधन को लेकर गंभीर है. गठबंधन के लिए उन्हें त्याग करने के लिए तैयार रहना होगा।