लोकसभा 2024 के चुनाव की रणभेरी बजने में कुछ महीने शेष हैं. सभी पार्टियां सियासी बिसात बिछाने में जुटी हैं,वहीं हरिवंश विवाद के बाद जदयू को लेकर कुछ सवाल उठ रहे हैं. सवाल हैं कि पार्टी ने जिन नेताओं को राज्यसभा भेजा उनकी या तो विदाई हो गई या उन्होंने पार्टी छोड़ दी. बात राज्यसभा सांसद हरिवंश की तो 2018 में सिंह राज्यसभा में एनडीए के साझा उम्मीदवार बनाए गए. नीतीश ने हरिवंश को जिताने के लिए नवीन पटनायक और जगनमोहन रेड्डी से समर्थन मांगा था. बहुमत होने की वजह से हरिवंश जीत भी गए. हरिवंश तब से राज्यसभा के उपसभापति हैं.राज्यसभा के उपसभापति हरिवंश नारायण सिंह पर उनकी अपनी ही पार्टी जेडीयू हमलावर है. नए संसद भवन के उद्घाटन समारोह में हरिवंश के शामिल होने के समय से हीं सवाल खड़े हो रहे हैं. प्रोफेशनल करियर में नैतिकता को लेकर आचार संहिता बनाने वाले हरिवंश की नैतिकता पर ही सवाल उठ रहे हैं.2022 में नीतीश कुमार बीजेपी से गठबंधन तोड़कर आरजेडी के साथ चले गए. इसके बाद हरिवंश की भूमिका को लेकर सवाल उठा.हरिवंश ने राज्यसभा के उपाध्यक्ष पद से इस्तिफा नहीं दिया,सीएम चाहते थे कि वे स्वत: पद छोड़ दें,फिर नीतीश से दूरी के पीछे लालू यादव और उनकी पार्टी को माना जाता है. हरिवंश ने अपने पत्रकारिता करियर में लालू सरकार के खिलाफ जमकर अभियान चलाया और चारा घोटाला जैसे बड़ा खुलासा किया.चारा घोटाला की वजह से ही लालू यादव को जेल जाना पड़ा और राबड़ी देवी मुख्यमंत्री बनी. लालू को लेकर हरिवंश 2015 में भी सहज नहीं थे, लेकिन उस वक्त वे ज्यादा कुछ कर नहीं पाए थे. हाल ही में जेडीयू अध्यक्ष ललन सिंह ने भी एक खुलासा किया था. ललन सिंह के मुताबिक 2017 में नीतीश कुमार और बीजेपी को साथ लाने में हरिवंश ने बड़ी भूमिका निभाई थी. हाल में जदयू संसदीय बोर्ड से बाहर करने केे बाद हरिवंश पर जदयू आक्रामक है. बहरहाल हरिवंश से पार्टी ने दूरी बना ली है. अब बात जार्ज साहब की तो जार्ज और नीतीश के अलग होने का कारण यह माना जाता है कि जब साल 2005 में नीतीश कुमार को लालकृष्ण आडवाणी ने एनडीए के सीएम कैंडिटेट के रूप में प्रस्तुत किया था तो जॉर्ज फर्नांडिस को बुरा लगा. नीतीश ने शायद इसे ही दिल पर ले लिया था और जार्ज फर्नाडिस को किनारा लगा दिया.नीतीश ने अपना तेवर दिखाते हुए जार्ज फर्नांडिस को अध्यक्ष पद से हटा कर शरद यादव को जदयू का अध्यक्ष बना दिया. लोकसभा का चुनाव जब 2009 में हुआ तो जार्ज का टिकट नालंदा से काट दिया गया. फिर जार्ज फर्नांडिस मुजफ्फरपुर से निर्दलीय चुनाव लडें. लेकिन उन्हें हार का सामना करना पड़ा. यह वही जार्ज थें जब आपातकाल के दौरान 1977 लोकसभा चुनाव के दौरान जेल में थे क्योंकि उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया था. उस वक्त अपने लोकसभा क्षेत्र में एक बार भी नही आए लेकिन जीते तीन लाख मतों के अंतर से.बड़े समाजवादी जार्ज फर्नांडीस राज्यसभा का कार्यकाल समाप्त होने के बाद जदयू के संपर्क में नहीं रहे।

खैर शरद यादव और नीतीश ने लंबे समय तक साथ में काम किया. लेकिन, बाद में कई मुद्दों को लेकर दोनों के बीच मतभेद बढ़ते चले गए और उनकी राहें जुदा हो गईं.नीतीश कुमार द्वारा 2013 में बीजेपी से नाता तोड़ने का फैसला किया. हालांकि, शरद यादव साथ नहीं छोड़ना चाहते थे, क्योंकि वे भाजपा के नेतृत्व वाले वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के संयोजक थे. 2014 की हार के बाद नीतीश और शरद के बीच खटास आना शुरू हो गई थी. नीतीश कुमार ने बिहार में 2015 के विधानसभा चुनावों में भाजपा को हराने के लिए शरद के कट्टर प्रतिद्वंद्वी माने जाने वाले लालू प्रसाद यादव से हाथ मिला लिया. उन्होनें जदयू का साथ छोड़ दिया.डा. एजाज अली और साबिर अली जैसे राज्यसभा के सांसदों ने इस परम्परा को आगे बढ़ाया. साबिर 2008 में लोजपा से राज्यसभा में गए. 2011 में पाला बदल कर जदयू में आ गए. राज्यसभा से हटने के बाद कुछ दिनों तक जदयू में रहे. अभी भाजपा में हैं.महेंद्र सहनी जदयू के राज्यसभा सदस्य थे.कार्यकाल में उनका निधन हो गया. पुत्र अनिल सहनी को उनका बचा कार्यकाल मिला. एक पूर्ण कार्यकाल भी दिया गया. विवादों से घिरे रहने के कारण जदयू वे से अलग हो गए,अभी राजद में हैं.एनके सिंह और पवन कुमार वर्मा जैसे अकादमिक और प्रशासनिक क्षेत्र के दिग्गज भी राज्यसभा कार्यकाल तक ही जदयू से जुड़ कर रह पाए. मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के बेहद करीबी लोग न सिर्फ जदयू से अलग हुए, बल्कि नीतीश कुमार के राजनीतिक विरोधी भी हो गए. बात आरसीपी सिंह की पूर्व केंद्रीय मंत्री और जदयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष रह चुके आरसीपी सिंह ने भी जदयू से नाता तोड़ लिया. आरसीपी ने कहा था कि उन्होंने अपना त्यागपत्र जदयू के प्रदेश अध्यक्ष को भेज दिया .इससे पहले जदयू प्रदेश अध्यक्ष ने आरसीपी सिंह को पत्र लिखकर इसका जवाब देने को कहा था कि उन पर विगत नौ वर्षों में 52 भूखंड ( 40 बीघा जमीन) खरीदने के आरोप पार्टी के ही दो लोगों द्वारा लगाए गए हैं, इस बारे में वह जवाब दें. पार्टी के बाइलाज की धारा -19 के तहत यह बात कही गई थी कि अगर 15 दिनों के भीतर आरसीपी ने जवाब नहीं दिया तो उन पर कार्रवाई भी होगी. पार्टी की नोटिस का जवाब दिए जाने के पहले आरसीपी सिंह ने जदयू से ही इस्तीफा दे दिया. आरसीपी सिंह भी नीतीश कुमार के बरसों तक सबसे क़रीब रहे हैं. बाद में नीतीश के सबसे कट्टर विरोधी बने आरसीपी सिंह ने, “जनता दल यूनाइटेड को डूबता जहाज़ बताया उन्होनें कहा कि आप लोग तैयार रहिए, एकजुट रहिए.चला जाएगा।

उपेंद्र कुशवाहा ने तो राज्यसभा में कार्यकाल भी पूरा नहीं किया. अलग हुए और राष्ट्रीय लोक समता के नाम से नई पार्टी बना ली. वह दूसरी बार जदयू से जुड़े तो विधान परिषद का कार्यकाल छोड़ कर अलग हो गए. अभी राष्ट्रीय लोक जनता दल के नाम से उनकी नई पार्टी बनी है.इस फेहरिस्त में और कई नाम हैं.कभी नीतीश के बेहद करीबी साथी रहे पूर्व केन्द्रीय मंत्री आरसीपी ने तो बीजेपी का ही दमन थाम लिया वहीं उपेंद्र कुशवाहा भी जिस तरह –नीतीश का साथ छोड़कर बीजेपी के पाले में गए, उसकी टीस भी नीतीश अब तक भूल नहीं पाये हैं.बहरहाल 2005 से अब तक गंगा नदी में बहुत पानी बह चुका है.मुंम्बई में इंडिया गठबंधन की विपक्षी दलों के बैठक हैं, एैसे में राजनीतिक चर्चाएँ का दौर शुरु है इसमें सबसे बड़ा सवाल है कि ऐसा जदयू के साथ हीं क्यों होता है कि 11 नेताओं को राज्यसभा नीतीश ने भेजा जिन्होंने अंत अंत तक उनका साथ छोड़ दिया।

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