बिहार सरकार ने जातिगत जनगणना के आंकड़े जारी कर दिए हैं. आंकड़ों के मुताबिक राज्य में हिंदुओं की आबादी 81.99 फीसदी है. वहीं मुसलमानों की आबादी 17.70 फीसदी है. अगर जाति की बात करें तो यहां यादवों की सबसे ज्यादा आबादी है. जो 14.26 फीसदी है. यादवों की तुलना में राज्य में मुसलमानों की आबादी ज्यादा है, लेकिन राजनीतिक प्रतिनिधित्व के मामले में दोनों के बीच जमीन-आसमान का अंतर है।बिहार की सियासत में जमीन तलाश रहे ऑल इंडिया मजलिस ए इत्तेहादुल मुस्लिमीन (AIMIM) के प्रमुख असदुद्दीन ओवैसी को जातिगत जनगणना ने एक सियासी मौका दे दिया है. ओवैसी मुस्लिम प्रतिनिधित्व को मुद्दा बनाकर अब अपनी मुस्लिम राजनीति को नई धार दे सकते हैं, क्योंकि इसी बात को लेकर वो अपनी पार्टी का विस्तार करने में लंबे समय से जुटे हैं. ओवैसी बिहार विधानसभा चुनाव में मुस्लिम वोटर्स को अपने पक्ष में करने में काफी हद तक कामयाब हुए थे. अब लोकसभा चुनाव में वह और मजबूती के साथ उतरते दिखाई देंगे।बता दें कि 2020 के विधानसभा चुनाव में ओवैसी की पार्टी के पांच विधायकों ने जीत दर्ज की थी।
बड़ी बात यह है कि उस चुनाव में 19 मुसलमान विधायक चुनाव जीते थे, जिनमें लालू प्रसाद यादव की आरजेडी के मुस्लिम विधायकों की संख्या सबसे ज्यादा थी. आरजेडी से 8 मुस्लिम विधायक विधानसभा पहुंचे थे, जबकि पार्टी ने 17 मुस्लिम उम्मीदवारों को चुनाव में उतारा था. आरजेडी हमेशा से यादव और मुसलमानों की सियासत करती रही है. लेकिन जातिगत जनगणना के आंकड़े सामने आने के बाद आरजेडी की चिंता बढ़ गई है. यादवों की तुलना में मुसलमानों की संख्या ज्यादा होने के बावजूद विधायकों की संख्या बहुत ही कम है.यादव समुदाय की आबादी 14 फीसदी है और विधायक 52 हैं. इस तरह से यादव समुदाय का प्रतिनिधित्व 21 फीसदी से ज्यादा है. वहीं, मुसलमानों की आबादी 17.70 फीसदी है, लेकिन विधायक 19 हैं. इस तरह मुस्लिमों का प्रतिनिधित्व सिर्फ एक फीसदी है. ऐसे में ओवैसी को आरजेडी की मुस्लिम सियासत पर सवाल खड़े करने का मौका मिल गया है. इसी बहाने वह अपनी सियासत को नई बुलंदी दे सकते हैं।